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काश मैं मनाता तुम्हे...और तुम...

ना तुम रूठी न मनाया मैंने मैं रूठा... तो तुम्हे खबर ही नहीं रूठा इस उम्मीद में कि तुम मनाओगी... लेकिन क्या पड़ी थी तुम्हे कि तुम मनाओ मुझे... तो फिर कब तक रूठा-रूठा रहता तुमसे...बेवजह दिल को तकलीफ देकर कि इस रूठने मनाने में खो न दूं...तुमको और खुद को भी इसलिए मान जाता हूं खुद से ही क्योंकि मानना ही पड़ता और करता भी क्या...? जब पता है... रूठने मनाने का सिल-सिला दो दिलों का होता है.. दो जिस्मों का नहीं.