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Showing posts from 2018

मेरे आईने के अलावा, मुझे जानता कौन था?

तेरी बेवफ़ाई ने मुझे मशहूर कर दिया... वरना मेरे आईने के अलावा, मुझे जानता कौन था?

इश्क़- विश्क का खेल है ऐसा...

इश्क़-विश्क का खेल है ऐसा दिल अपना दिल चुन लेगा तुम आँखों से भी बोलोगी तो वो आँखों से ही सुन लेगा तोल-मोल का भाव ना इसमे ना कोई क़ीमत इसकी सात रंग की इस दुनिया में रंग अपना वो चुन लेगा धर्म ना इसका, जाति ना इसकी ना कोई भाषा बोली मिल जाए इश्क़ का मेल है जिससे संग उसी के ये होली ढीठ बहुत है इश्क़ है ये करता अपनी ही मनमानी जान जाए...पर वचन ना जाए यही इश्क़ की ज़ुबानी....

तो फिर कौन...?, तुम जैसा मेरे संग रहने लगा है...

ले जाओ, अगर ले जा सकते हो अपने अहसासों की गठरी को तेरे जाने के बाद, ज़िंदगी का बोझ बढ़ने लगा है गूँजती है कमरे के हर कोने में तेरी बातें मैं चुप हूँ...तो भी लगता है कोई सुनने लगा है बदली है कई बार रंग मैंने दीवारों की मगर तेरा साया अँधरे में भी दिखने लगा है जो तुम जा चुकी हो सब छोड़ छाड़ कर तो फिर कौन....? तुम जैसा मेरे संग रहने लगा है

हम आउट ऑफ फैशन नहीं हैं....

यूं तो हम आउट ऑफ फैशन हो चले थे, जिस तरह से डीजिटल इंडिया में एलईडी और चाइनीज लाइटों ने हमसे हमारा हक छीना था, हमें लगा था कि हमारे दिन अब लद गए क्योंकि रही सही कसर इनवर्टर और सरकारों ने गांव गांव बिजली पहुंचा कर पूरी कर दी है. लेकिन कहते हैं ना हर डॉगी का दिन आता है. सो हमारा भी आया और ऐसा आया कि क्या नेता क्या सितारे, क्या दिन क्या रात सबने हाथों हाथ लिया. और इतना प्यार किया कि बस पूछो मत आईपीएल मैच छोड़कर इंडिया गेट पर लोग हमें संभालते रहे. हमने भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी हम बुझते रहे वो जलाते रहे, मजे कि बात तो सुनिए हमारी अचानक बढ़ी डिमांड देखकर मीडिया वाले भी पीछे पड़ गए और पूछने लगे कि कैसा महसूस कर रही हूं. लेकिन बड़े पत्रकार को देखकर मैं मारे शर्म के बुझ गई, भला हो पम्मी आंटी का उन्होंने झट से अपने गुची वाले बैग से लाइटर निकाला तब जाकर जान में जान आई, और फिर बगल में सेल्फी ले रही मोना मैडम के कैमरे में देखकर हमने भी खुद को संभाला और थोड़ी चमक बढ़ा ली. वैसे तो ज्यादातर हमारे बिरादरी के लोग बनिये की दुकान में तेल के डब्बों के नीचे कहीं दबे पड़े होकर दिपावली या फिर अपनी आखिरी

कचोटता है मन मेरा, पूछता ये प्रश्न है...

कचोटता है मन मेरा, पूछता ये प्रश्न है खाक में जो मिल गए, क्या कभी वो फूल थे दर्द भी कराह के, थक गया था अंत में हार गई सांस थी, जो लड़ रहे वो स्वप्न थे निगल लिए गए थे जो, हवस की भूख में क्या सो गए हैं कब्र में,  सुकून से गहरी नींद में